Monday, April 22, 2013

दामिनी से गुडि़या तक कुछ भी नहीं बदला

बीते साल 16 दिसम्बर की रात को दामिनी गैंगरेप की अमानुषिक घटना के बाद उम्मीद थी कि अब तो महिलाओं की सुरक्षा में थोड़ा फर्क आएगा पर Rape in delhi _blatkar dilliअत्यंत दुख के साथ कहना पड़ता है कि महिलाओं में असुरक्षा की भावना में कोई कमी नहीं आई। पांच वर्ष की मासूम गुडि़या के साथ जो पाश्विकता हुई उसे सुनकर जरा से संवेदनशील व्यक्ति के रौंगटे खड़े हो जाए। 25 फरवरी को संसद द्वारा कार्यस्थलों पर महिला यौन उत्पीडन (रोकथाम और निषेध) विधेयक-2012 और महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े एंटी रेप बिल जैसे तमाम उपायों, धरना-प्रदर्शन और भारी जनाक्रोश के बावजूद देश भर से आये दिन बलात्कार, छेड़छाड़ और एसिड अटैक अर्थात महिला उत्पीडन के मामलों की खबरें आ रही हैं। कहीं भी कानून का डर दिखाई नहीं दे रहा है। देष के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर तमाम जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग अपराधियों को कड़ी सजा देने और ऐसे मामलों में सख्ती बरतने की हिमायत तो जरूर करते हैं लेकिन उसका जमीन पर असर दिखाई नहीं देता है। राजधानी दिल्ली जहां देष के सबसे षक्तिषाली, प्रभावषाली और कानून बनाने वालों की पूरी फौज रहती है वहीं दिल्ली दुनिया में रैप कैपिटल के नाम से पहचानी जा रही है वहां महिलाएं स्वयं को अत्यधिक असुरक्षित महसूस कर रही हैं, ऐसे में दूसरे षहरों, कस्बों और गांवों की स्थिति का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है। आम बजट में महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार ने निर्भया फंड की घोषणा की थी और तमाम सुधारों पर विचार-विमर्ष चल रहा है लेकिन महिलाओं की सुरक्षा आये दिन तार-तार हो रही है यह कड़वी सच्चाई है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जब खुद यह स्वीकार करें कि मेरी बेटी भी इस शहर में असुरक्षित महसूस करती है तो महिलाओं में असुरक्षा की भावना को इससे बेहतर और कौन बता सकता है। दुनियाभर में दिल्ली रेप कैपटिल के नाम से जाने जा रही है। महिलाओं के खिलाफ अपराध के आंकड़े चैंकाने वाले हैं। दिल्ली में महिलाओं पर जुल्म तेजी से बढ़े हैं। देश की राजधानी में इस साल एक जनवरी से लेकर 15 फरवरी तक दुष्कर्म के 181 मामले सामने आए हैं। इस तरह राजधानी में रोजाना औसतन चार महिलाएं दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं। जबकि 2012 में यह औसत दो पर थी। 2012 में पूरे साल में दुष्कर्म के कुल 706 मामले दर्ज हुए थे। 1 जनवरी, 2008 से 31 दिसंबर, 2011 तक दिल्ली में 1814 महिलाएं बलात्कार का शिकार हुई अर्थात 38 महिलाएं प्रतिदिन हैवानियत का शिकार हुई। इस वृद्धि के आंकड़ों के पीछे हालांकि यह कारण भी हो सकता है कि चैतरफा सख्ती के कारण अब बलात्कार के सारे मामलों की रिपोर्टें हो रही हैं, पहले आधे मामले की रिपोर्ट नहीं होती थी या फिर पुलिस रजिस्टर ही नहीं करती थी। सुरक्षा के इंतजाम आज भी पुख्ता नहीं हैं, पहले से ज्यादा डर महिलाओं में है और अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था से भी महिलाएं संतुष्टि नहीं हैं। इसके पीछे प्रशासन, पुलिस की कमियां मुख्य कारण हैं। पुलिस बेशक कई कमियों के लिए जिम्मेदार हो पर प्रशासन की कमियों की वजह से भी पुलिस आलोचना का शिकार होती है।
राजधानी दिल्ली की करीब डेढ़ हजार महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी एक महिला पुलिस कर्मी पर है। ऐसे में इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं किस हद तक सुरक्षित हैं। थानों में भी महिला पुलिस की भारी कमी है। दिल्ली पुलिस में सिर्फ करीब साढ़े छह फीसदी महिला पुलिस कर्मी हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की आबादी करीब 1,67,53,000 है। इनमें 77,76,825 महिलाएं हैं। दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस की संख्या करीब 78 हजार है और इनमें महिला पुलिस कर्मियों की संख्या कुल 5121 है। ऐसे में थाने पहुंचने वाली पीडि़त महिला पुरुष पुलिस वाले के सामने असहज महसूस करती है और सामने दर्द बयां नहीं कर पाती। देष के विभिन्न राज्यों में महिलाआंे की भागीदारी लगभग 7 फीसद है कहीं कहीं तो यह आंकड़ा इससे भी कम है। 16 दिसम्बर की घटना के बाद महिला उत्पीडन, खासतौर पर बलात्कार के खिलाफ एक सख्त कानून की न केवल जरूरत महसूस की गई बल्कि इसे लेकर देशभर में बहस भी हुई। महिलाओं के उत्पीडन को रोकने से संबंधित कानून केंद्रीय मंत्रिमंडल में सहमति न बनने से लगता नहीं जल्द अस्तित्व में आएगा। आंकड़े यह साबित करते हैं कि देशभर से उठी आवाजों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध कम नहीं हुए हैं। महिला उत्पीडन को रोकने के लिए वाकई एक सशक्त कानून की जरूरत है मगर यह पर्याप्त नहीं है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार 2005 में 18,359 2006 में 19,348, 2007 में 20,737, 2008 में 21,467, 2009 में 21,397, 2010 में 22,172, 2011 में 24,206 बलात्कार के मामले दर्ज किये गये। एनसीआरबी ने 1971 से बलात्कार के आंकड़े दर्ज करने शुरू किये थे। 1971 में बलात्कार के 2487 के मामले दर्ज हुये थे जिसमें पिछले वर्ष तक 900 फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी हो चुकी है। अनुमान के अनुसार वर्ष 2012 में 26000 से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं। 16 दिसंबर, 2012 को दामिनी गैंगरेप के बाद देश भर में उठ जनज्वार से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि व्यवस्था में सुधार होगा और अदालतें, पुलिस, प्रशासन और सरकार बलात्कार और महिलाओं से जुड़े अन्य अपराधों में त्वरित कार्रवाई करेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार देश की अदालतों में बलात्कार के 40,0000 से ज्यादा मामले लंबित है। इन मामलों में सजा मिलने की दर बहुत कम है और तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस दर में तेजी से गिरावट दर्ज हो रही है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने सदन को जो जानकारी दी थी उसके अनुसार बलात्कार के मामले में सजा मिलने की दर (कन्विक्शन रेट) 44.3 फीसद, 1983 में 37.7 फीसद, 2009 में 26.9 फीसद और 2010 एवं 2011 में क्रमशः 26.6 और 26.4 फीसद रही। कन्विक्शन रेट में दशकवार गिरावट इस बात का साफ संकेत है कि पुलिस तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, कानूनी पेचदगियां और बच निकलने के रास्ते, लंबी एवं हिम्मत तोडने वाली न्यायिक प्रक्रिया और ले-देकर मामला निपटाने की पुलसिया फार्मूले के चलते अपराधी दण्ड पाने से बच जाते हैं। जिस संसद के कंधों पर देश की नागरिकों की रक्षा, सुरक्षा और तमाम दूसरे उत्तरदायित्व है वहां अपराधिक चरित्र के सदस्यों की संख्या अच्छी खासी हैं। लोकसभा में 30 फीसदी अर्थात 162 सांसद और राज्यसभा में 38 अर्थात 16 फीसद सांसद अपराधिक चरित्र के हैं। देश के सबसे बड़े राज्य में शुमार उत्तर प्रदेश में 403 विधायकों में से 189, महाराष्ट्र में 287 में 146 और बिहार में 241 में से 139 विधायक आपराधिक चरित्र के हैं। देशभर में कांग्रेस और भाजपा के कुल सांसदों ,विधायकों और विधान परिषद सदस्यों में क्रमशः 305 और 313 पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सासंदों, विधायकों ने चुनाव के समयान शपथ पत्र में यह जानकारी स्वयं उपलब्ध करवाई है। जब देश के कर्णधार आपराधिक मामलों में लिप्त हो तो ऐसे में समाज में क्या संदेश जाएगा और वो किस हद तक कानून और कानूनी प्रक्रिया को प्रभावित करेंगे का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 88 फीसदी महिलाओं को यौन उत्पीडन, प्रताडना और बलात्कार से संबंधित कानूनों की ठीक से जानकारी ही नहीं है तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा है कि थानों में दर्ज होने वाले बलात्कार के सिर्फ 26 फीसदी मामलों में ही दोषियों को सजा मिल पाती है। सच्चाई यह भी है कि आर्थिक निर्भरता उत्पीडन या बलात्कार से बचने की गारंटी नहीं है और न ही महिला बैंक जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाने से स्थिति बदलने वाली है। महिला के उत्पीडन पर बात करते हुए समाज में उनकी बदलती हैसियत पर भी गौर करना होगा। ऐसा लगता है कि पुरुष वर्चस्व उनकी इस पहलकदमी को कुबूल नहीं कर पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी।
टाटा स्ट्रैटेजिक मैनेजमेंट ग्रुप द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है कि देश के कई राज्यों में महिला सुरक्षा की हालत बहुत खराब है। इनमें हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान व दिल्ली प्रमुख है। मेट्रो शहरों की बात की जाए तो हैदराबाद व दिल्ली सबसे निचले पायदान पर है। इतनी ही नहीं बल्कि दिल्ली-एनसीआर में दुष्कर्म के मामलों और दहेज से होने वाली मौतों में सबसे आगे है। इतना कुछ होने के बावजूद न तो गाडि़यों से काले शीशे ही पूरी तरह उतरे हैं और न ही रात को बसों के संचालन में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर आया है। जब दिल्ली का यह हाल है तो बाकी देश का क्या हाल होगा, कल्पना करना मुश्किल नहीं। बहुत दुख से कहना पड़ता है कि दामिनी से गुडि़या कुछ भी नहीं बदला।

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